लोग मुझे नास्तिक कहते हैं। कारण - मैं मंदिर नहीं जाता, मूर्ति एवं छवि के आगे शीश नहीं नवाता। तो क्या ईश्वर पत्थर एवं कागज़ में सीमित होकर रह गया है? यदि ऐसा ही है, तो समस्त मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर-गुरूद्वारे जाने वाले आस्तिक हुए! इस्लाम में मूर्ति पूजा नहीं है, पर अल्लाह को मिलने वे मस्जिद जाते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं, अपितु आपको वहाँ जाना चाहिए जहां आप शान्ति अनुभव करें। पर मेरा प्रश्न ईश्वर कि अनुभूति को लेकर है। मेरा दर्शन जीवन को लेकर कुछ अलग है. कुछ बातें प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो मुझे ईश्वर का अनुभव बेहतर रूप में करवाती हैं।
- ईश्वर का अनुभव करना है, तो सर्व-प्रथम अपने माता-पिता में करिये। उस माँ में करिये जो आपको देखते ही खिल उठती हैं. जो आपको उतना प्रेम करती हैं जिसके कुछ लोग लायक भी नहीं हैं। उस पिता में करिये जो आप पर अभिमान करते हैं। जो स्वयं अनेक कष्ट उठा कर भी आपके लिए वह सब करते हैं, जो ईश्वर प्रत्यक्ष रूप में नहीं करता।
- ईश्वर का अनुभव करना है, तो उस बहन में करिये जो आपके आने पर प्यार से आपके लिए आपकी पसंद का खाना बनाती है। क्या वह अनुभूति आलौकिक नहीं? प्रेम से बड़ा कोई ईश्वर नहीं।
- ईश्वर का अनुभव करना है, तो उस नन्हे से शिशु में करिये जो आपको देखते ही अपने बाहें फैला देता है आपकी गोद में जाने के लिए। जब वह हँसता है, खुश होता है आपको देखकर। यकीन करिये, उस निष्पाप शिशु से अधिक ईश्वरीय अंश और कहीं नहीं।
- ईश्वर का अनुभव करना है, तो प्रकृति में करिये। कलकल बहती नदी के स्वर में, उसके नील वर्ण में, हिमाच्छादित पर्वतों में, श्याम वर्ण मेघों से बरसते पानी में, लहलहाते खेतों में, सम्पूर्ण प्रकृति में!
- ईश्वर का अनुभव करना है, तो उस मनुष्य में करिये जो नि:स्वार्थ भाव से दूसरों कि सेवा करता है, जो सदैव दूसरों को प्रसन्न करने कि चेष्टा करता है, जो बुराई के विरुद्ध लड़ता है।
- ईश्वर का अनुभव करना है, तो किसी भी सहृदय, सुशीला, सदाचारी नारी के सौंदर्य में करिये। हर मनुष्य सुन्दर है, पर बहुत कम मनुष्यों में ह्रदय का सौंदर्य विद्यमान होता है। उस नारी में अनुभव कीजिये जो स्वयं माँ सरस्वती के समान तेजस्वी है।
- और अंत में, ईश्वर का अनुभव करना है, तो स्वयं में विद्यमान बुराइयों को दूर कर देखिये। आपको स्वयं में ईश्वर का अनुभव होगा।
मैं ईश्वर को किसी वस्तु में नहीं, अपितु भावनाओं में अनुभव करता हूँ। मेरे लिए तो संगीत, या यूं कहूँ कला भी ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करने का एक रास्ता है। यदि आप अपनी कला के प्रति ईमानदार हैं।