गुरुवार, 6 मार्च 2014

ईश्वर का अनुभव

लोग मुझे  नास्तिक कहते हैं। कारण - मैं मंदिर नहीं जाता, मूर्ति एवं छवि के आगे शीश नहीं नवाता। तो क्या ईश्वर पत्थर एवं कागज़ में सीमित होकर रह गया है? यदि ऐसा ही है, तो समस्त मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर-गुरूद्वारे जाने वाले आस्तिक हुए! इस्लाम में मूर्ति पूजा नहीं है, पर अल्लाह को मिलने वे मस्जिद जाते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं, अपितु आपको वहाँ जाना चाहिए जहां आप शान्ति अनुभव करें। पर मेरा प्रश्न ईश्वर कि अनुभूति को लेकर है। मेरा दर्शन जीवन को लेकर  कुछ अलग है. कुछ बातें प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो मुझे ईश्वर का अनुभव बेहतर रूप में करवाती हैं।


  • ईश्वर का अनुभव करना है, तो सर्व-प्रथम अपने माता-पिता में करिये। उस माँ  में करिये जो आपको देखते ही खिल उठती हैं. जो आपको उतना प्रेम करती हैं जिसके कुछ लोग लायक भी नहीं हैं। उस पिता में करिये जो आप पर अभिमान करते हैं। जो स्वयं अनेक कष्ट उठा कर भी आपके लिए वह सब करते हैं, जो ईश्वर प्रत्यक्ष रूप में नहीं करता। 
  • ईश्वर का अनुभव करना है, तो उस बहन में करिये जो आपके आने पर प्यार से आपके लिए आपकी पसंद का खाना बनाती है। क्या वह अनुभूति आलौकिक नहीं? प्रेम से बड़ा कोई ईश्वर नहीं।
  • ईश्वर का अनुभव करना है, तो उस नन्हे से शिशु में करिये जो आपको देखते ही अपने बाहें फैला देता है आपकी गोद में जाने के लिए। जब वह हँसता है, खुश होता है आपको देखकर। यकीन करिये, उस निष्पाप शिशु से अधिक ईश्वरीय अंश और कहीं नहीं। 
  • ईश्वर का अनुभव करना है, तो प्रकृति में करिये। कलकल बहती नदी के स्वर में, उसके नील वर्ण में, हिमाच्छादित पर्वतों में, श्याम वर्ण मेघों से बरसते पानी में, लहलहाते खेतों में, सम्पूर्ण प्रकृति में! 
  • ईश्वर का अनुभव करना है, तो उस मनुष्य में करिये जो नि:स्वार्थ भाव से दूसरों कि सेवा करता है, जो सदैव दूसरों को प्रसन्न करने कि चेष्टा करता है, जो बुराई के विरुद्ध लड़ता है। 
  • ईश्वर का अनुभव करना है, तो किसी भी सहृदय, सुशीला, सदाचारी नारी के सौंदर्य में करिये। हर मनुष्य सुन्दर है, पर बहुत कम मनुष्यों में ह्रदय का सौंदर्य विद्यमान होता है। उस नारी में अनुभव कीजिये जो स्वयं माँ सरस्वती के समान तेजस्वी है। 
  • और अंत में, ईश्वर का अनुभव करना है, तो स्वयं में विद्यमान बुराइयों को दूर कर देखिये। आपको स्वयं में ईश्वर का अनुभव होगा। 
मैं ईश्वर को किसी वस्तु में नहीं, अपितु भावनाओं में अनुभव करता हूँ। मेरे लिए तो संगीत, या यूं कहूँ कला भी ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करने का एक रास्ता है। यदि आप अपनी कला के प्रति ईमानदार हैं। 

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

तर्क-कुतर्क

नमस्कार!  बहुत दिनों के बाद यहाँ कुछ लिख रहा हूँ। जीवन कुछ इस कदर रहस्यों से भरा पड़ा है कि सभी तर्क गलत साबित प्रतीत होते हैं। कुछ दिनों पूर्व समाचार-पत्र में पढ़ा कि पिछले साल १६ दिसंबर को हुए बर्बर काण्ड के आरोपियों को अपनी पढाई चालू रखने कि अनुमति मिल गयी है। मामला यह था कि इतने जघन्य कृत्य को करने के बाद दोषी पाये जाने पर जामिया विश्वविद्यालय ने उन हैवानों को निष्कासित कर दिया था। उन पर भविष्य में भी प्रवेश पर रोक लगा दी थी। परन्तु हमारी न्यायपालिका का सोचना कुछ और ही है। मैं कुछ नहीं कहूंगा विरोध में। बस इतना भर कहना चाहूंगा कि यदि शिक्षा किसी भी मनुष्य का (यद्यपि वे मनुष्य कहलाने के लायक नहीं) मूलभूत अधिकार है, तो किसी का जीवन एवं अस्मिता उससे भी अधिक। जहां एक और एक असहाय लड़की के साथ अति अमानवीय कृत्य किया गया। वहीँ दूसरी ओर दोषियों के अधिकारों कि बातें कही जा रही हैं :( क्या ऐसे पापियों को जीने का भी अधिकार होना चाहिए? शिक्षा तो दूर कि बात है। यही बात उन पर भी लागू होती है जो अम्ल फेंक कर किसी लड़की का समस्त जीवन अभिशप्त बना देते हैं :(
नव वर्ष का आगमन होने को है। ईश्वर ऐसे दरिंदों से दुनिया को बचाये। पुन: मिलेंगे

शनिवार, 14 सितंबर 2013

हिंदी दिवस - परिचर्चा

लीजिये महाशय, आ ही गया हिंदी दिवस! चूंकि हिंदी  अनपढ़ों, गंवारों एवं मूर्खों की भाषा है, बहुत ही कम लोगों को इसकी जानकारी है। आप यह कदापि ना समझें की मैं व्यंग कर रहा हूँ। यह कटाक्ष है हमारी उस युवा पीढ़ी पर जो आंग्ल-भाषा (English) के २-३ शब्द बोल कर स्वयं को श्रेष्ठ और हिंदी-भाषियों को क्षुद्र समझती है। भले ही वे एक पूरा वाक्य आंग्ल-भाषा में ठीक से ना लिख पाएं। मेरे कार्यालय में मेरे सहकर्मियों को मेरे हिंदी प्रेम से विशेष आपत्ति है। 
चलिए, बात करते हैं हिंदी की स्थिति पर। शुरुआत करते हैं अपने ही आस-पास से। किसी के भी आगे जाकर बोल दीजिये "भाग्य की भी क्या विडंबना है"। वो आप पर तुरंत हंसने लगेगा। विडंबना शब्द में गाम्भीर्य नहीं हास्य है। जहां आपने २-३ शुद्ध हिंदी के शब्द अपने मुख से निकाल दिए, वहीँ आपकी खिल्ली उडनी शुरू। यूनिवर्सिटी जाना है? किसी रिक्शा वाले को कहिये की विश्विद्यालय जाना है। वो आपके मुख को ऐसे घूरेगा जैसे आप मंगल ग्रह से आये हों। फिर वो पूछेगा कहाँ जाना है? तब आप कहें की यूनिवर्सिटी जाना है। फिर वो आपको ले चलेगा। आप अंग्रेजी बोलने में गलती कर दीजिये, फिर देखिये कैसे आप उपहास का पात्र बनते हैं। आप सुनेंगे की कोई मद्धम वाणी में कह रहा है, देखो तो गंवार को, इसे इंग्लिश भी नहीं आती। यदि वे स्वयं हिंदी बोलने में या लिखने में त्रुटी कर रहे हैं, इसका बखान वे अत्यंत प्रसन्न होकर करते हैं कि जी हमें तो हिंदी नहीं आती! कैसा विरोधाभास है? आपसे किसी ने कभी समय पूछा है? अवश्य ही नहीं। टाइम पूछा होगा। आप किस कक्षा में पढ़ते हैं? नहीं। किस क्लास में पढ़ते हैं। आपके घर कभी बिजली या विद्युत् जाती है? नहीं जी, हमारे यहाँ तो लाइट जाती है! आप हिंदी की पुस्तकें पढ़ते हैं? ओ गॉड! आप कितने गंवार हैं?? आप चेतन भगत के नॉवेल्स नहीं पढ़ते? शेम ऑन यू! आप भाषांतरित चलचित्र (dubbed movies) देखते हैं? इसका मतलब आप देहाती हैं और आपको अंग्रेजी भाषा का कतई ज्ञान नहीं। यदि आप मेरी तरह वैश्विक संगीत में रूचि रखते हैं और आज-कल व्यापक अर्थ-हीन हनी सिंह के गीत नहीं सुनते हैं तो आप पाखंडी हैं! यह एक और विरोधाभास है। आप पूरा वाक्य हिंदी में बोल के देखिये, आपको पहले ही टोक दिया जाएगा। बस बस ये आप क्या बोल रहे हैं मेरी तो समझ में ही नहीं आया, सब सिर की ऊपर चला गया। कुछ ऐसा बोलिए की समझ में आये। और ऐसा नहीं की केवल तथा-कथित अभिजात वर्ग में ही यह संकीर्णता दिखाई देती है।  जैसा की मैंने ऊपर लिखा की एक रिक्शा या ऑटो वाला भी आपसे यही कहता दिखाई देगा। मेरे कार्यालय की कैब्स के चालक भी दायें या बायें नहीं समझते हैं। उनको बोलना पड़ता है की जी यहाँ से राईट ले लो या अगले कट से लेफ्ट मोड़ लेना!
उदाहरण तो अनेक हैं परन्तु इस चर्चा का अंत नहीं। आपको जान कर आश्चर्य होगा की फेसबुक पर मेरे २ मित्र रोमानिया एवं १ मित्र आर्मेनिया से हैं और वे तीनों हिंदी सीखने को लालायित रहते हैं। काश ऐसी बुद्धि हमारे युवा वर्ग में भी होती।
हिंदी दिवस की लौ प्रज्ज्वलित रखने के प्रयास में मेरी एक प्रविष्टि।

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

शिक्षक दिवस - स्मृतियाँ

शिक्षक दिवस - जैसा की हम सब जानते हैं, डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के जन्म-दिवस के उपलक्ष में मनाते हैं. शिक्षक दिवस से मेरी स्मृतियाँ जाती हैं मेरे कॉलेज के दिनों की ओर जब में कॉलेज में एक नवागंतुक हुआ करता था। मुझे आज भी याद है कैसे हमारी वनस्पति-विज्ञान (botany) की व्याख्याता (lecturer) श्रीमती अमिता जी ने हमें संबोधित किया था। उनके शब्द आज तक मेरे कानों में गूंजते हैं। उनकी २ प्रमुख बातें थीं की फ़ैशन से दूर रहो, दूसरी मोबाइल फ़ोन से दूर रहो। अब आप सोचेंगे कैसे संकीर्ण विचार थे उनके? मैं आपको बता दूं, उनका उद्देश्य केवल यह था की हम जो खर्चा दूसरी अनावश्यक वस्तुओं पर करेंगे, उससे कहीं अधिक लाभ पुस्तकों पर व्यय करने पर होगा। चूंकि हम सभी वहां के स्थानीय निवासी थे, मोबाइल फ़ोन की आवशयकता ना के बराबर थी। मुझे आज भी प्रसन्नता होती है की मैंने अपना प्रथम मोबाइल फ़ोन स्नातक की परीक्षा देने का बाद लिया। वो भी जब मुझे अपना गृह-नगर छोड़ कर दिल्ली जाना था। मैं तृतीय वर्ष तक उनके प्रिय छात्रों में शामिल नहीं था और मुझे आज भी ध्यान है कैसे उन्होंने मुझे प्रथम वर्ष की अर्ध-वार्षिक परीक्षा उपरान्त डांट लगाई थी। मुझे ५० में से केवल २१ अंक प्राप्त हुए थे और उनको मुझसे कहीं अधिक की उम्मीद थी। पर जैसा मैंने उपर बताया, तृतीय वर्ष में उनकी मेरे बारे में धारणा बदली जब मैंने उनके कहने पर एक कॉलेज स्तर की क्विज प्रतियोगिता में भाग लिया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। मेरा उद्देश्य मेरा बखान करने का नहीं अपितु उस शिक्षिका का बखान करने का है जो सही मायनों में आदर्श थीं। अब कॉलेज छोड़े मुझे ४ वर्ष बीत चुके हैं और मेरी उनसे कभी बात होती है, तो मैं हमेशा उनके उसी संबोधन के बारे में कहता हूँ जो उन्होंने शुरुआत में दिया था। अमित मैडम अपने विषय में पूर्णतयः निष्णात थीं। उनका पढ़ाने का तरीका, अपने विषय की समझ और अपने पेशे को लेकर गंभीरता प्रशंसनीय है। 

आज जब शिक्षकों को देखता हूँ तो विस्मय होता है की कैसे शिक्षा कारोबार बन गयी है। शिक्षक विद्यार्थी को पैसे बनाने का साधन समझते  हैं और विद्यार्थी शिक्षक को मूर्ख। आपसे प्रेम, सम्मान तो रहा ही नहीं। आये दिन के समाचार मिलते हैं की अमुक शिक्षक ने ट्यूशन न लगवाने पर विद्यार्थी को अनुत्तीर्ण कर दिया, अमुक शिक्षक ने विद्यार्थी को दंड-स्वरूप इतना पीटा की उसको हस्पताल ले जाना पड़ा। 

अंत में, यही कहूँगा कि शिक्षक जैसे गौरवमयी पद की गरिमा बचाने की आवशयकता है। काश वो दिन दुबारा आयें जब शिक्षकों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। सभी को शिक्षक-दिवस की हार्दिक सुभकामनायें।